बिहार राज्य से दुखद खबरें आ रही हैं। हमारे लगभग 100 लाडले बच्चों की दुखद मौत हुई है। अभी यह कहना कठिन है कि और कितने बच्चे हमारी जर्जर स्वास्थ्य सुविधाओं की बलि बनेंगे। आज एक और भी बड़ी खबर है कि आज देश भर के लाखों डॉक्टर हड़ताल पर हैं। यह हड़ताल पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों पर सुनियोजित हमले के विरोध में हो रहे आंदोलन के क्रम में हो रही है। हड़ताली डॉक्टरों की मुख्य मांगें हैं कि दोषियों को कड़ी सजा दी जाए और उनको व्यापक सुरक्षा दी जाए, इसके लिए एक व्यापक केंद्रीय कानून लाया जाए।
ये जायज मांगे हैं और घटना भी बेहद निदनीय है अतः यह आंदोलन जायज है और इसलिए हम इसका पुरज़ोर समर्थन करते हैं। क्या यह अच्छा नही होता कि देश भर के डॉक्टर व स्वास्थ्य कर्मी इसके साथ यह मांग भी उठाते की स्वास्थ्य सुविधाओं को इतना उन्नत व व्यवस्थित करो कि इस तरह से मासूमों की मौत न हो। क्या यह अच्छा नहीं होता कि यह आवाज भी हड़ताल में सुनाई पड़ती कि स्वास्थ्य तकनीक के इतने विकसित स्तर के बावजूद भी क्यों मासूमों की जान गवानी पड़ रही है?
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि डॉक्टरों पर हमले रोकने के अब एक सख्त कानून बनाया जाना चाहिए। सवाल यह है कि उन्होंने इसके साथ ही यह क्यों नहीं कहा कि देश के लोगों के लिए उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सुविधा देने को संविधान में मूल अधिकार बनाया जाए। हम अपनी बात हड़ताल के विषय से शुरू करते हैं। यहां पर कुछ सवाल हमें सोचने के लिए विवश कर रहें हैं कि डॉक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मरीजों के परिजनों के द्वारा हिंसक घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं? हमारे समाज में लोग डॉक्टर को भगवान का दर्जा देते हैं अब वह भगवान पर ही हमलावर क्यों हो रहें हैं। मरीज दुख कष्ट में हस्पताल में पहुँचते हैं, ऐसे में मारपीट का कुविचार उसमें कहां से व क्यों आ जाता है?
यह कुछ बड़े सवाल परेशान करने वाले हैं। यदि इस बारे में सही तरह से सोचकर कदम न उठाएं जाए तो पुलिस की व्यवस्था व सख्त कानून से कुछ नहीं होगा। मरीजों, डॉक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों के बीच दिनों दिन द्वंद्व बढ़ता जाएगा। हमें यह भी समझना चाहिए कि यह ऐसा पेशा नहीं है जो बंदूकधारी सुरक्षा कर्मियों के घेरे में रह कर किया जा सकता हो। अतः सुरक्षा घेरा समस्या का समाधान तो कतई नहीं है बल्कि यह इस महान पेशे की मूल भावना के भी विरुद्ध है।
मरीज व डॉक्टर, शिष्य व शिक्षक के बीच रिश्ते सर्वाधिक स्नेहपूर्ण, सम्मानजनक व भरोसेमंद होने चाहिए। दुख की बात यह है कि अन्य सामाजिक रिश्तों की तरह इस रिश्ते में भी गिरावट आई है। हम इस विषय की सम्पूर्णता में अभी नही जाना चाहते हैं। मगर डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों व मरीजों के बीच के द्वंद्व की समस्या को हम मौजूदा व्यवस्था के बाहर नहीं देख सकते हैं। यही वह जगह है जहां से समस्या पनप रही है।
शिक्षा व स्वास्थ्य जनकल्याण के मामले हैं। एक समय तक सरकार भी ऐसा ही मानती थी, मगर 1991 में उदारीकरण , निजीकरण व भूमण्डलीकरण की नीति आने के साथ ही सरकार ने इसको कमाई का व्यवसाय बना दिया। इसने एक तरफ निजी हस्पतालों की बाढ़ पैदा की और साथ ही सरकारी हस्पतालों की हालत और भी जर्जर कर दी। इतने बढे देश में वर्तमान प्रधानमंत्री की भाषा में दुनिया के सबसे ज्यादा विकासशील देश में सरकार का स्वास्थ्य पर खर्च 1 प्रतिशत के लगभग है? जो हमसे कहीं ज्यादा छोटे देश के स्वास्थ्य बजट से भी कम है। ऐसे में सरकारी हस्पतालों की हालत खराब होना तय थी।
इस कारण ईमानदार व मेहनती डॉक्टर व स्वास्थ्य कर्मी भी मरीज़ों की उचित देखभाल में असमर्थ हो गया। भीड़ बढ़ती गई और मरीज़ों को स्वास्थ्य सुविधाएं देने की स्थिति बद से बदतर होती गई। इस स्थिति से लोग अनजान हैं। सरकारों ने अपनी वोट परस्त राजनीति हेतु, अपनी जनप्रियता के लिए असली बातें छुपाई और दिखावटी बातें लोगों को बताई। अतः हस्पतालों में असुविधा का सारा दोष डॉक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों के ऊपर डाल दिया गया। लोग यह भी नहीं जानते कि कम स्टाफ के चलते भी डॉक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों को किस दबाव में काम करना पड़ रहा है। इस स्थिति ने लोगों को डॉक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों का दुश्मन बना दिया। यह स्थिति तब और भी विकट हो गई जब डॉक्टर एक डॉक्टर न होकर व्यवसायिक नजरिये से चिकित्सा करने लगा। इलाज करना उसके लिए मानव सेवा का महान कार्य नहीं रहा। महान नैतिक मूल्यों में यह ह्रास दुखद है अतः डॉक्टर लोगों का 'भगवान' नही रहा। इस स्थिति में मरीज व डॉक्टर मधुर व उच्च रिश्तों को द्वंद्व में बदल दिया। वे एक दूसरे को दोष देने लगे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हस्पतालों में बंदूकधारी बैठने से समस्या हल होगी? मेरा मत है नहीं। सरकार की यदि यही नीति जारी रहेगी तो द्वंद्व बढ़ता जाएगा।
अभी धीरे धीरे स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों की पहुंच से और भी ज्यादा दूर होती जा रही हैं। बिहार में 100 बच्चों की मौत और क्या बता रही है। यही तो की स्वास्थ्य सुविधाएं चौपट हो रही है। सरकार घड़याली आंसू बहा रही है। कर वही रही है जिससे स्वास्थ्य व्यवस्था और खराब होगी। गरीब बेबस मरीज बढ़ते जा रहे हैं और सरकार की तरफ से उनको दी जाने वाली सुविधाएं घटती जा रही हैं। लोग हैरान परेशान प्राईवेट हस्पतालों से लूटकर कंगाल हो रहे हैं। आज हर वर्ष गरीबी की दलदल में जाने वाले लोगो में 17 प्रतिशत वे लोग होते हैं जो ईलाज में अपना सब कुछ गवा देते हैं। अतः व्यवस्था में कहां पर खोट है यह भी देखना व सुधारना चाहिए, वरना समस्या का समाधान नहीं होगा। ऐसे ही हमारे मासूम बच्चों की जान जाती रहेगी, लोग बेइलाज मरते रहेंगे, डॉक्टरों व मरीजों के बीच द्वंद्व बढ़ता रहेगा। और हमारी अज्ञानता पर सत्ताधारी पार्टियां सत्ता का मजा लेती रहेगी।
साभार: हरीश त्यागी, अध्यक्ष, ऑल इंडिया यूनाईटेड यूनियन सेंटर, दिल्ली
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