विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाएं सरकारें: पवन सुरेखा

विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाएं सरकारें: पवन सुरेखा
#कुदरत का कहर या प्रशासन की लापरवाही?

नई दिल्ली।

देशभर में हो रही भारी बरसात, बादल फटना, भूस्खलन और पहाड़ों के दरकने जैसी प्राकृतिक आपदाओं को लोग अक्सर ईश्वरीय प्रकोप मानते हैं। लेकिन क्या यह सब केवल प्रकृति का क्रोध है या इंसानों की गलतियों और प्रशासन की लापरवाहियों का नतीजा?
दिल्ली स्थित त्रिनगर निवासी पवन सुरेका राजस्थानी का कहना है कि आज जरूरत है कि सरकारें विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाएं। प्रकृति को विनाश की ओर धकेलने के बजाय उसकी रक्षा करें। वरना हर साल बरसात के मौसम में यही तस्वीरें दोहराई जाएंगी और आम जनता इसकी कीमत अपनी जान और रोज़ी-रोटी से चुकाती रहेगी।

#प्रकृति से छेड़छाड़, विनाश का कारण
वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों के साथ छेड़छाड़, पहाड़ों पर अतिक्रमण और लालच के नाम पर अंधाधुंध विकास ने प्राकृतिक संतुलन को तोड़ा है। यही कारण है कि आज नदियाँ उफान पर हैं, पहाड़ दरक रहे हैं और शहर जलभराव में डूब रहे हैं। प्रकृति अपने रौद्र रूप से चेतावनी दे रही है—“मुझे मत छेड़ो।”

#शहरों की दुर्दशा, प्रशासन जिम्मेदार
दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, बेंगलुरु, गुड़गांव, नोएडा, देहरादून जैसे देश के बड़े शहर इन दिनों जलभराव और यातायात जाम से जूझ रहे हैं। कहीं स्कूलों की छुट्टी करनी पड़ रही है तो कहीं दफ्तरों में कामकाज ठप हो रहा है। ये वही शहर हैं जो देश की अर्थव्यवस्था, रोजगार और टैक्स का बड़ा हिस्सा देते हैं। फिर भी समय रहते जल निकासी, यातायात प्रबंधन और आपदा नियंत्रण की पुख्ता तैयारी नहीं की जाती।

#लालच और लापरवाही का संगम
कुदरत का कहर और प्रशासनिक लापरवाही मिलकर आम आदमी की जिंदगी को मुश्किल बना रहे हैं। सवाल उठता है—क्या विकास केवल ऊँची इमारतें और चौड़ी सड़कें बनाने तक ही सीमित रहेगा? या इसमें लोगों की सुरक्षा और प्राकृतिक संतुलन को भी प्राथमिकता मिलेगी?

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